आशुतोष कुमार |
आत्मसमर्पण और क्या होता है
"भारत के नए अमेरिका प्रेम से ये सब उपलब्धियाँ ठीक उस वक्त दाँव पर लग गई हैं, जब उसने तेज विकास दर के नए दौर में प्रवेश किया है, और जब विश्व पटल पर उसके निर्णायक हस्तक्षेप की वास्तविक सम्भावना पैदा हुई है। "
लेमोआ ‘लाजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरांडा एग्रीमेंट’ का लघुनाम है। इसे हिंदी में ‘रसद विनिमय अनुबोधक समझौता’ कह सकते हैं। भारत और अमेरिका ने इस समझौते पर इस साल 29 अगस्त को दस्तखत किए। भारत सरकार इसे अपनी महत्वपूर्ण कूटनैतिक उपलब्धि बता रही है। लेकिन विपक्ष इसे अमेरिका के सामने भारत के आत्मसमर्पण के रूप में देख रहा है।
समझौता दोनों देशों को यह अधिकार देता है कि वे अपने विमानों और समुद्री जंगी जहाजों की ईंधन-आपूर्ति, मरम्मत और दीगर रसद जरूरतों की पूर्ति के लिए एक दूसरे की जमीन और सुविधाओं का उपयोग कर सकें। लगभग तीन सौ देशों के साथ अमेरिका के इसी तरह के समझौते हैं। अमेरिका दशकों से भारत के साथ इस तरह के समझौते के लिए दबाव डालता रहा है। लेकिन वाजपेयी सरकार समेत पिछली कोई भी सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई। खाड़ी युद्ध के दिनों में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने चोरी-चुपके अमेरिकी युद्धक विमानों को तेल आपूर्ति की लिए भारत में उतरने की इजाजत दे दी थी। पता चलने पर देश में हंगामा खड़ा हो गया। सरकार गिरने की नौबत आ गई।
राष्ट्रवाद का ढोल पीटने वाली सरकार इस समझौते से दबाव में है। उसे विपक्ष के अलावा चीन जैसे पड़ोसी देशों को भी सफाई देनी पड़ रही है। सरकार का कहना है कि वर्तमान समझौता अमेरिका और उसके मित्र देशों के बीच होनेवाले आम रसद आपूर्ति समझौते (लॉजिस्टिक सप्लाई एग्रीमेंट यानी एल एस ए) जैसा नहीं है। इस समझौते से अमेरिका को अपने युद्धों के लिए भारत की सैन्य सुविधाओं का स्वतः अधिकार नहीं मिल जाएगा। यह अधिकार केवल साझा सैन्य अभ्यासों, सागर-दस्यु- नियन्त्रण और संयुक्त राष्ट्र द्वारा संस्तुत सैनिक अभियानों तक सीमित रहेगा। दूसरे, अमेरिका को भारत में अपने स्थायी अड्डे बनाने की इजाजत नहीं मिलेगी। इन सफाइयों का मकसद यह बताना है कि समझौते के बावजूद भारत ‘मित्र-देशों’ की तरह अमेरिकी गुट में शामिल नहीं हो गया है। उसने न तो अपनी संप्रभुता के साथ समझौता किया है, न गुट-निरपेक्षता की नीति का परित्याग किया है।
आलोचकों की नजर में ये सफाइयाँ महज जुमलेबाजी है। नौसेना के अफसर रह चुके रक्षा विशेषज्ञ अभिजित सिंह का कहना है कि नए दौर में महाशक्तियाँ विदेशों में नए स्थायी अड्डे बनाना भी नहीं चाहती हैं। युद्ध का स्वरूप बदल गया है। अब दुनिया भर के युद्धों को घर बैठे कम्प्यूटर द्वारा संचालित किया जा सकता है। नए अड्डे बनाने के तामझाम उठाने से बेहतर है युद्धक विमानों और जहाजों के लिए जगह-जगह ईंधन आपूर्ति और मरम्मत की सुविधाएँ सुनिश्चित करना। नए अड्डे बनाने की बनिस्बत ऐसी सुविधाएँ जुटा लेना कम खर्चीला और अधिक सुविधाजनक है। यही कारण है कि अब रसद समझौतों पर अधिक जोर दिया जा रहा है। यह कहना भी बेमानी है कि अमेरिका अपने निजी युद्धों के लिए इन सुविधाओं का उपयोग नहीं कर सकता। अमेरिका हमेशा अपने वैश्विक युद्धों के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्तुति बड़ी आसानी से हासिल कर लेता है। समझौते के बाद ऐन वक्त पर इन सुविधाओं से इंकार करना भारत के लिए कतई आसान नहीं होगा। इसलिए व्यावहारिक रूप से अब भारत की स्थिति अमेरिका के युद्ध साझीदार जैसी हो गई है।
दुनिया जानती है कि अमेरिका अपने साझीदारों की संप्रभुता का कितना सम्मान करता है। पाकिस्तान का उदाहरण सामने है। वहाँ कई बार पाकिस्तान की असैनिक आबादी अमेरिकी ड्रोन हमलों का शिकार हो जाती है। पाकिस्तानी सरकार दबी जबान से विरोध भी जताती रही है, जिस पर ध्यान देना अमेरिका को जरूरी नहीं लगता। पाकिस्तान ही नहीं, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे ताकतवर देश भी अमेरिका के सैन्य फैसलों में हस्तक्षेप नहीं कर पाते। यह बात सामने आ चुकी है कि इराक पर हमले के लिए अमेरिका ने उसके पास जनसंहार के हथियार होने का झूठा बहाना बनाया था। इस युद्ध के विनाशकारी परिणाम इराक़ की बर्बादी और आइएस जैसे आतंकी संगठनों के उदय के रूप में दुनिया झेल रही है। इस अनैतिक युद्ध में भागीदार होने की भारी कीमत ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देशों को भी चुकानी पड़ रही है। अमेरिका का समूचा सैन्य इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है।
भारत नें गुट निरपेक्षता के सिद्धांत पर चलते हुए अब तक अपनी संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रख सका है। उसकी विदेश नीति और रक्षा नीति स्वतंत्र बनी रही है। एक विकासशील देश के बतौर भारत की यह उपलब्धि साधारण नहीं थी। इसी स्वतन्त्रता के कारण तीसरी दुनिया के देश अमीर देशों की भेदभाव भरी नीतियों के खिलाफ़ संघर्ष में भारत से नेतृत्व की उम्मीद रखते आए हैं। आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरण सम्बन्धी मंचों पर वे भारत से अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने की आशा रखते आए हैं। भारत के पास विराट अर्थशक्ति नहीं थी। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भी नहीं थी। फिर भी तीसरी दुनिया के नेता के रूप में वह एक विश्वशक्ति की तरह देखा जाता रहा है। अमेरिका का युद्ध-साझीदार बनने से न केवल उसकी सम्प्रभुता संशयग्रस्त हो उठेगी, अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उसका स्वतंत्र हस्तक्षेप भी संदिग्ध हो जाएगा। अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण अमेरिका ने दुनिया भर में अपने खिलाफ़ ढेर सारी घृणा भी बटोरी है। उसके साझीदार देश भी इस घृणा के निशाने पर आ जाते हैं। अपनी स्वतंत्र नीति के कारण ही भारत घृणा के इस सैलाब से अछूता रहा है। भले ही पाकिस्तान समर्थित समूहों ने भारत को आतंकवाद का निशाना बनाया हो, वह वैश्विक आतंकवाद का प्रमुख लक्ष्य कभी नहीं रहा। भारत अगर अमेरिका के पाले में जाता हुआ दिखाई पड़ा तो आतंक-विरोधी संघर्ष के मोर्चे पर भी उसे जटिलतर चुनैतियों का सामना करना पड़ सकता है। यह आशंका भारत के इस फैसले से और गहरी हुई है कि गुटनिरपेक्ष देशों के इसी हफ्ते वेनेजुएला में हो रहे सत्रहवें शिखर सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी करेंगे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं।
कहा जा रहा है कि बदली हुई परिस्थितियों में गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत अप्रासंगिक हो चुका है। दुनिया एकध्रुवीय हो गई है, इसलिए अब एक ही गुट रह गया है। इस गुट से बाहर रहना नुकसानदेह हो सकता है। यह एक बचकाना तर्क है। चीन अमेरिकी गुट में शामिल नहीं है, फिर भी आर्थिक महाशक्ति बन चुका है। अमेरिकी दबाव से मुक्त होने के कारण वह अपने आर्थिक –राजनैतिक फैसले करने के लिए स्वतंत्र है। उसकी आर्थिक तरक्की के पीछे यह प्रमुख कारण है। चीन में अमेरिकी पूँजी का निवेश इस हद तक बढ़ चुका है कि अमेरिका उसे अस्थिर करने की बात सोच भी नहीं सकता। उलटे चीन की बढती हुई चुनौती के कारण भारत को अपने पाले में करने की उसकी बेचैनी बढ़ गई है। पाकिस्तान अमेरिकी संरक्षण स्वीकार कर चुका है। उसकी गत हम देख ही रहे हैं। इराक में अमेरिका समर्थक सरकार बनने के बाद उसका जो हश्र हुआ, वह भी सब के सामने है। सचाई यह है कि बदली हुई दुनिया में अमेरिकी छत्रछाया से शक्ति नहीं मिलती, समस्याएँ मिलती हैं। शक्ति मिलती है आर्थिक मजबूती से। आर्थिक मजबूती के लिए नीतिगत स्वतन्त्रता जरूरी है। शीतयुद्ध के जमाने में एक या दूसरे गुट में शामिल होने के पीछे भय का तर्क हो सकता था। शीतयुद्धोत्तर युग में गुटबन्दी में शरीक होने का कोई तर्क नहीं बचा है।
समानता पर आधारित बहुआयामी दुनिया बनाने का सपना जिंदा रखने के लिए आज गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत अधिक प्रासंगिक हो उठा है। सन 2009 में एकध्रुवीय दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने के घोषित मकसद से रूस की पहल पर चीन, भारत और ब्राजील ने ब्रिक्स समूह बनाया था। बाद में दक्षिण अफ्रीका भी इसमें शामिल हो गया। इसी अक्टूबर में ब्रिक्स का आठवाँ शिखर सम्मेलन भारत में होने वाला है। गुटनिरपेक्षता की पताका बुलंद करते हुए ब्रिक्स सम्मेलन को सफलता की नई ऊँचाइयों तक ले जाने का यह एक सुनहला अवसर है। चीन ने बार-बार संकेत दिए हैं कि सीमा विवाद को तूल न देते हुए वह भारत के साथ आर्थिक–कूटनीतिक सहयोग बढ़ाना चाहता है। ब्रिक्स के लिए चीन का उत्साह और ‘एक पट्टी एक सड़क योजना’ में भारत को शामिल करने की तमन्ना के इजहार से यही संकेत मिलता है। पिछले महीने ही चीनी विदेश मंत्री वांग ई ने भारत आ कर हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद दोनों देशों ने यह घोषणा की है कि वे एनएसजी में भारत की सदस्यता पर खुले मन से संवाद करने को तैयार हैं। वांग ई ने यह भी स्पष्ट किया कि यह धारणा सही नहीं है कि एनएसजी में भारत का प्रवेश न होने देने के लिए चीन जिम्मेदार था। चीन के बढ़ते हुई दोस्ताना रवैए के पीछे आंतरिक कारण भी हैं, और उसकी वैश्विक रणनीति भी। चीन इन दिनों अति उत्पादन और अतिरिक्त पूँजी संग्रह के संकट का सामना कर रहा है। पिछले दिनों उसने बड़े पैमाने पर अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में पूँजी निवेश किया है। यह अतिरिक्त पूँजी के संकट पर किसी हद तक काबू पाने का उसका तरीका भी है, और अमेरिका पर विश्व अर्थव्यवस्था की निर्भरता को कम करने का उपाय भी। लेकिन भारत जैसे पड़ोस के बड़े बाजार को जोड़े बिना यह उपाय अधिक असरदार नहीं हो सकता। भारत में चीनी पूँजी को खपाने की क्षमता भी है और उसके उत्पादों को भी। चीनी उत्पादों ने तो पहले ही भारतीय बाजार में अपनी मजबूत उपस्थिति बना ली है। लेकिन चीनी पूँजी ने नहीं। कहना न होगा कि भारत में चीनी पूँजी का बड़े पैमाने पर निवेश दोनों देशों के लिए गुणकारी होगा। उधर दक्षिण चीन सागर विवाद के मद्देनजर भी चीन को भारत के सहयोग की जरूरत है।
भारत-अमेरिकी रसद समझौते से स्थानीय और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में जो बदलाव आया है, उसका सब से चिंताजनक उदाहरण है कि रूस पाकिस्तान के साथ अपने पहले युद्धाभ्यास की तैयारी कर रहा है। भारत को तय करना होगा कि अमेरिका की बढ़ी हुई दोस्ती से उसे ऐसा क्या हासिल होनेवाला है, जिसके लिए रूस जैसे भरोसेमंद दोस्त को खो देने का खतरा मोल लेने और पड़ोस में भारत से नाराज चीन-पाकिस्तान-रूस तिकड़ी को मजबूत होने देने की कीमत चुकाई जा सके! रसद समझौते से तो भारत को कुछ हासिल होनेवाला नहीं, क्योंकि पाकिस्तान और चीन भारत के निकटम पड़ोसी हैं, जिनके साथ युद्ध छिड़ने पर भारत को रसद आपूर्ति के लिए किसी अमरीकी अड्डे की जरूरत नहीं पड़ने वाली। वैसे भी अमेरिका भारत को अपने पड़ोसियों के साथ ऐसे किसी युद्ध में पड़ने की इजाजत नहीं देने वाला। आखिर पाकिस्तान कथित ‘आतंक-विरोधी युद्ध‘ में उसका प्रमुख भागीदार है। उधर चीन में अमेरीकी पूँजी का भारी निवेश है।
सत्तर वर्षों से भारत गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत और समानता पर आधारित बहुआयामी दुनिया के सपने का वैश्विक प्रवक्ता बना रहा। इस भूमिका की बदौलत कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद उसने प्रभावशाली कूटनीतिक उपस्थिति बनाई। भारत के नए अमेरिका प्रेम से ये सब उपलब्धियाँ ठीक उस वक्त दाँव पर लग गई हैं, जब उसने तेज विकास दर के नए दौर में प्रवेश किया है, और जब विश्व पटल पर उसके निर्णायक हस्तक्षेप की वास्तविक सम्भावना पैदा हुई है।
क्या यह जुआ कश्मीर में बढ़ते संकट के कारण खेला गया है? क्या भारत अमेरिका की धौंस दे कर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान को चुप करने की आशा करता है? अगर किसी के दिमाग में यह आशा रही हो, तो वह पिछले दिनों पाकिस्तान के लगातार आ रहे बढ़े-चढ़े बयानों के बाद बुझ चली होगी। अगर यह महज पिछले सत्तर सालों का सारा रंग-ढंग बदल डालने के आवेग का परिणाम है तो याद रखना चाहिए कि कूटनीति भावावेग से नहीं, विजन, व्यावहारिक सिद्धांत और कठोर गुणाभाग से संचालित होनी चाहिए। अन्यथा परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं।
ashuvandana@gmail.com
"भारत के नए अमेरिका प्रेम से ये सब उपलब्धियाँ ठीक उस वक्त दाँव पर लग गई हैं, जब उसने तेज विकास दर के नए दौर में प्रवेश किया है, और जब विश्व पटल पर उसके निर्णायक हस्तक्षेप की वास्तविक सम्भावना पैदा हुई है। "
लेमोआ ‘लाजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरांडा एग्रीमेंट’ का लघुनाम है। इसे हिंदी में ‘रसद विनिमय अनुबोधक समझौता’ कह सकते हैं। भारत और अमेरिका ने इस समझौते पर इस साल 29 अगस्त को दस्तखत किए। भारत सरकार इसे अपनी महत्वपूर्ण कूटनैतिक उपलब्धि बता रही है। लेकिन विपक्ष इसे अमेरिका के सामने भारत के आत्मसमर्पण के रूप में देख रहा है।
समझौता दोनों देशों को यह अधिकार देता है कि वे अपने विमानों और समुद्री जंगी जहाजों की ईंधन-आपूर्ति, मरम्मत और दीगर रसद जरूरतों की पूर्ति के लिए एक दूसरे की जमीन और सुविधाओं का उपयोग कर सकें। लगभग तीन सौ देशों के साथ अमेरिका के इसी तरह के समझौते हैं। अमेरिका दशकों से भारत के साथ इस तरह के समझौते के लिए दबाव डालता रहा है। लेकिन वाजपेयी सरकार समेत पिछली कोई भी सरकार इसके लिए राजी नहीं हुई। खाड़ी युद्ध के दिनों में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने चोरी-चुपके अमेरिकी युद्धक विमानों को तेल आपूर्ति की लिए भारत में उतरने की इजाजत दे दी थी। पता चलने पर देश में हंगामा खड़ा हो गया। सरकार गिरने की नौबत आ गई।
राष्ट्रवाद का ढोल पीटने वाली सरकार इस समझौते से दबाव में है। उसे विपक्ष के अलावा चीन जैसे पड़ोसी देशों को भी सफाई देनी पड़ रही है। सरकार का कहना है कि वर्तमान समझौता अमेरिका और उसके मित्र देशों के बीच होनेवाले आम रसद आपूर्ति समझौते (लॉजिस्टिक सप्लाई एग्रीमेंट यानी एल एस ए) जैसा नहीं है। इस समझौते से अमेरिका को अपने युद्धों के लिए भारत की सैन्य सुविधाओं का स्वतः अधिकार नहीं मिल जाएगा। यह अधिकार केवल साझा सैन्य अभ्यासों, सागर-दस्यु- नियन्त्रण और संयुक्त राष्ट्र द्वारा संस्तुत सैनिक अभियानों तक सीमित रहेगा। दूसरे, अमेरिका को भारत में अपने स्थायी अड्डे बनाने की इजाजत नहीं मिलेगी। इन सफाइयों का मकसद यह बताना है कि समझौते के बावजूद भारत ‘मित्र-देशों’ की तरह अमेरिकी गुट में शामिल नहीं हो गया है। उसने न तो अपनी संप्रभुता के साथ समझौता किया है, न गुट-निरपेक्षता की नीति का परित्याग किया है।
आलोचकों की नजर में ये सफाइयाँ महज जुमलेबाजी है। नौसेना के अफसर रह चुके रक्षा विशेषज्ञ अभिजित सिंह का कहना है कि नए दौर में महाशक्तियाँ विदेशों में नए स्थायी अड्डे बनाना भी नहीं चाहती हैं। युद्ध का स्वरूप बदल गया है। अब दुनिया भर के युद्धों को घर बैठे कम्प्यूटर द्वारा संचालित किया जा सकता है। नए अड्डे बनाने के तामझाम उठाने से बेहतर है युद्धक विमानों और जहाजों के लिए जगह-जगह ईंधन आपूर्ति और मरम्मत की सुविधाएँ सुनिश्चित करना। नए अड्डे बनाने की बनिस्बत ऐसी सुविधाएँ जुटा लेना कम खर्चीला और अधिक सुविधाजनक है। यही कारण है कि अब रसद समझौतों पर अधिक जोर दिया जा रहा है। यह कहना भी बेमानी है कि अमेरिका अपने निजी युद्धों के लिए इन सुविधाओं का उपयोग नहीं कर सकता। अमेरिका हमेशा अपने वैश्विक युद्धों के लिए संयुक्त राष्ट्र की संस्तुति बड़ी आसानी से हासिल कर लेता है। समझौते के बाद ऐन वक्त पर इन सुविधाओं से इंकार करना भारत के लिए कतई आसान नहीं होगा। इसलिए व्यावहारिक रूप से अब भारत की स्थिति अमेरिका के युद्ध साझीदार जैसी हो गई है।
भारत-अमेरिका का संयुक्त युद्धाभ्यास |
भारत नें गुट निरपेक्षता के सिद्धांत पर चलते हुए अब तक अपनी संप्रभुता को अक्षुण्ण बनाए रख सका है। उसकी विदेश नीति और रक्षा नीति स्वतंत्र बनी रही है। एक विकासशील देश के बतौर भारत की यह उपलब्धि साधारण नहीं थी। इसी स्वतन्त्रता के कारण तीसरी दुनिया के देश अमीर देशों की भेदभाव भरी नीतियों के खिलाफ़ संघर्ष में भारत से नेतृत्व की उम्मीद रखते आए हैं। आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरण सम्बन्धी मंचों पर वे भारत से अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने की आशा रखते आए हैं। भारत के पास विराट अर्थशक्ति नहीं थी। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता भी नहीं थी। फिर भी तीसरी दुनिया के नेता के रूप में वह एक विश्वशक्ति की तरह देखा जाता रहा है। अमेरिका का युद्ध-साझीदार बनने से न केवल उसकी सम्प्रभुता संशयग्रस्त हो उठेगी, अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में उसका स्वतंत्र हस्तक्षेप भी संदिग्ध हो जाएगा। अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण अमेरिका ने दुनिया भर में अपने खिलाफ़ ढेर सारी घृणा भी बटोरी है। उसके साझीदार देश भी इस घृणा के निशाने पर आ जाते हैं। अपनी स्वतंत्र नीति के कारण ही भारत घृणा के इस सैलाब से अछूता रहा है। भले ही पाकिस्तान समर्थित समूहों ने भारत को आतंकवाद का निशाना बनाया हो, वह वैश्विक आतंकवाद का प्रमुख लक्ष्य कभी नहीं रहा। भारत अगर अमेरिका के पाले में जाता हुआ दिखाई पड़ा तो आतंक-विरोधी संघर्ष के मोर्चे पर भी उसे जटिलतर चुनैतियों का सामना करना पड़ सकता है। यह आशंका भारत के इस फैसले से और गहरी हुई है कि गुटनिरपेक्ष देशों के इसी हफ्ते वेनेजुएला में हो रहे सत्रहवें शिखर सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी करेंगे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं।
कहा जा रहा है कि बदली हुई परिस्थितियों में गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत अप्रासंगिक हो चुका है। दुनिया एकध्रुवीय हो गई है, इसलिए अब एक ही गुट रह गया है। इस गुट से बाहर रहना नुकसानदेह हो सकता है। यह एक बचकाना तर्क है। चीन अमेरिकी गुट में शामिल नहीं है, फिर भी आर्थिक महाशक्ति बन चुका है। अमेरिकी दबाव से मुक्त होने के कारण वह अपने आर्थिक –राजनैतिक फैसले करने के लिए स्वतंत्र है। उसकी आर्थिक तरक्की के पीछे यह प्रमुख कारण है। चीन में अमेरिकी पूँजी का निवेश इस हद तक बढ़ चुका है कि अमेरिका उसे अस्थिर करने की बात सोच भी नहीं सकता। उलटे चीन की बढती हुई चुनौती के कारण भारत को अपने पाले में करने की उसकी बेचैनी बढ़ गई है। पाकिस्तान अमेरिकी संरक्षण स्वीकार कर चुका है। उसकी गत हम देख ही रहे हैं। इराक में अमेरिका समर्थक सरकार बनने के बाद उसका जो हश्र हुआ, वह भी सब के सामने है। सचाई यह है कि बदली हुई दुनिया में अमेरिकी छत्रछाया से शक्ति नहीं मिलती, समस्याएँ मिलती हैं। शक्ति मिलती है आर्थिक मजबूती से। आर्थिक मजबूती के लिए नीतिगत स्वतन्त्रता जरूरी है। शीतयुद्ध के जमाने में एक या दूसरे गुट में शामिल होने के पीछे भय का तर्क हो सकता था। शीतयुद्धोत्तर युग में गुटबन्दी में शरीक होने का कोई तर्क नहीं बचा है।
समानता पर आधारित बहुआयामी दुनिया बनाने का सपना जिंदा रखने के लिए आज गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत अधिक प्रासंगिक हो उठा है। सन 2009 में एकध्रुवीय दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने के घोषित मकसद से रूस की पहल पर चीन, भारत और ब्राजील ने ब्रिक्स समूह बनाया था। बाद में दक्षिण अफ्रीका भी इसमें शामिल हो गया। इसी अक्टूबर में ब्रिक्स का आठवाँ शिखर सम्मेलन भारत में होने वाला है। गुटनिरपेक्षता की पताका बुलंद करते हुए ब्रिक्स सम्मेलन को सफलता की नई ऊँचाइयों तक ले जाने का यह एक सुनहला अवसर है। चीन ने बार-बार संकेत दिए हैं कि सीमा विवाद को तूल न देते हुए वह भारत के साथ आर्थिक–कूटनीतिक सहयोग बढ़ाना चाहता है। ब्रिक्स के लिए चीन का उत्साह और ‘एक पट्टी एक सड़क योजना’ में भारत को शामिल करने की तमन्ना के इजहार से यही संकेत मिलता है। पिछले महीने ही चीनी विदेश मंत्री वांग ई ने भारत आ कर हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद दोनों देशों ने यह घोषणा की है कि वे एनएसजी में भारत की सदस्यता पर खुले मन से संवाद करने को तैयार हैं। वांग ई ने यह भी स्पष्ट किया कि यह धारणा सही नहीं है कि एनएसजी में भारत का प्रवेश न होने देने के लिए चीन जिम्मेदार था। चीन के बढ़ते हुई दोस्ताना रवैए के पीछे आंतरिक कारण भी हैं, और उसकी वैश्विक रणनीति भी। चीन इन दिनों अति उत्पादन और अतिरिक्त पूँजी संग्रह के संकट का सामना कर रहा है। पिछले दिनों उसने बड़े पैमाने पर अफ्रीका और लातीनी अमेरिका में पूँजी निवेश किया है। यह अतिरिक्त पूँजी के संकट पर किसी हद तक काबू पाने का उसका तरीका भी है, और अमेरिका पर विश्व अर्थव्यवस्था की निर्भरता को कम करने का उपाय भी। लेकिन भारत जैसे पड़ोस के बड़े बाजार को जोड़े बिना यह उपाय अधिक असरदार नहीं हो सकता। भारत में चीनी पूँजी को खपाने की क्षमता भी है और उसके उत्पादों को भी। चीनी उत्पादों ने तो पहले ही भारतीय बाजार में अपनी मजबूत उपस्थिति बना ली है। लेकिन चीनी पूँजी ने नहीं। कहना न होगा कि भारत में चीनी पूँजी का बड़े पैमाने पर निवेश दोनों देशों के लिए गुणकारी होगा। उधर दक्षिण चीन सागर विवाद के मद्देनजर भी चीन को भारत के सहयोग की जरूरत है।
भारत-अमेरिकी रसद समझौते से स्थानीय और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में जो बदलाव आया है, उसका सब से चिंताजनक उदाहरण है कि रूस पाकिस्तान के साथ अपने पहले युद्धाभ्यास की तैयारी कर रहा है। भारत को तय करना होगा कि अमेरिका की बढ़ी हुई दोस्ती से उसे ऐसा क्या हासिल होनेवाला है, जिसके लिए रूस जैसे भरोसेमंद दोस्त को खो देने का खतरा मोल लेने और पड़ोस में भारत से नाराज चीन-पाकिस्तान-रूस तिकड़ी को मजबूत होने देने की कीमत चुकाई जा सके! रसद समझौते से तो भारत को कुछ हासिल होनेवाला नहीं, क्योंकि पाकिस्तान और चीन भारत के निकटम पड़ोसी हैं, जिनके साथ युद्ध छिड़ने पर भारत को रसद आपूर्ति के लिए किसी अमरीकी अड्डे की जरूरत नहीं पड़ने वाली। वैसे भी अमेरिका भारत को अपने पड़ोसियों के साथ ऐसे किसी युद्ध में पड़ने की इजाजत नहीं देने वाला। आखिर पाकिस्तान कथित ‘आतंक-विरोधी युद्ध‘ में उसका प्रमुख भागीदार है। उधर चीन में अमेरीकी पूँजी का भारी निवेश है।
सत्तर वर्षों से भारत गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत और समानता पर आधारित बहुआयामी दुनिया के सपने का वैश्विक प्रवक्ता बना रहा। इस भूमिका की बदौलत कमजोर आर्थिक स्थिति के बावजूद उसने प्रभावशाली कूटनीतिक उपस्थिति बनाई। भारत के नए अमेरिका प्रेम से ये सब उपलब्धियाँ ठीक उस वक्त दाँव पर लग गई हैं, जब उसने तेज विकास दर के नए दौर में प्रवेश किया है, और जब विश्व पटल पर उसके निर्णायक हस्तक्षेप की वास्तविक सम्भावना पैदा हुई है।
क्या यह जुआ कश्मीर में बढ़ते संकट के कारण खेला गया है? क्या भारत अमेरिका की धौंस दे कर कश्मीर के मुद्दे पर पाकिस्तान को चुप करने की आशा करता है? अगर किसी के दिमाग में यह आशा रही हो, तो वह पिछले दिनों पाकिस्तान के लगातार आ रहे बढ़े-चढ़े बयानों के बाद बुझ चली होगी। अगर यह महज पिछले सत्तर सालों का सारा रंग-ढंग बदल डालने के आवेग का परिणाम है तो याद रखना चाहिए कि कूटनीति भावावेग से नहीं, विजन, व्यावहारिक सिद्धांत और कठोर गुणाभाग से संचालित होनी चाहिए। अन्यथा परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं।
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